Sunday, 8 July 2018

मुनि वंशावली और इतिहास ( Muni rajput vanshawali )

मुनि वंशावली

श्री ब्रह्माजी के स्वयंभुव मुनि-स्वांयभुव मुनि की रानी शतरूपा उसके प्रियव्रत उत्तानपाद, प्रियव्रत के १० पुत्रबड़े पुत्र आग्नी के , ऋषभ के भरत, जिन्होंने भारत-खण्ड का राज्य किया था, इनके नाम पर ही भरत खड नाम विख्यात है। उत्तानपाद के डूबजी, उत्तमकुमार, वजी के धुवकेतु घुवकेतु के स्मुवाति, स्मुवावति के मोर ध्वज मोर ध्वज के रतनकुमार, रतनकुमार के त्वंगदध्वज, त्वंगदध्वज के अंग ध्वज, अंगध्वज के पुष्पानदेव, पुष्पामदेव के सोचिकादेव, सोचिकादेव के उमंगदेव, उत्मंगदेव के अंगादेव अंगादेव के जब कोई सन्तान न हुई तो आबू पर्वत पर जहाँ वशिष्ठ ऋषि तप करते थे, उनसे राजा अंगादेव ने प्रार्थना की कि महाराज ! चौथापन आ गया है, लेकिन कोई सन्तान नहीं है । तब वशिष्ठ जी ने राजा से कहा कि आप पुत्रेष्टि यज्ञ करेंसन्तान अवश्य होगी। राजा ने वशिष्ठ जी के वचन सुनकर यज्ञ की सामग्री एकत्र की और वशिष्ठ जी ने सब पक्षियों को निमन्त्रण दिया। वशिष्ठ जी का बुलावा पाकर सब ऋषि आये और यज्ञ करने की तैयारी की । य पूर्ण होने पर प्राधियों ने राजा तथा चारों रानियों को हथि का प्रसाद दिया। ऋषियों से राजा और रानियों ने प्रसन्न होकर प्रसाद ग्रहण किया और ऋषियों ने आशीर्वाद दिया। राजा रानी यज्ञ की और ऋषियों की परिक्रमा करके और उनसे बरदान लेकर प्रसन्न हुए, तब ऋषियों ने राजा से कहा कि जाओो तुम्हारे बड़े तेजस्वी व प्रतापी पुत्र होंगे। रानियाँ ऋषियों के वचन सुनकर आशीर्वाद कर महलों को चली गई। परमात्मा की कृपा से चारों रानी गर्भवती हुई और पूर्ण गर्भ होने पर चारों के सन्तानें हुई। जिनका विवरण इस प्रकार है

राजा अंगाददेव नाम स्त्री नाम पत्र के नाम व श ।
१-रानी चाहवती प्राण्डुराज परिहार
२-चम्पावती प्रेमराज पवार
३-०चन्द्रभागा सुजन चौहान
४-महादेवी सोल की
हाड़ावती का इतिहास पृष्ठ ६६१ से ६६३ तक हिन्दी अनुवाद (जेम्स टाड़ द्वारा लिखित)


जब राजाओं की अधर्म भिन्नता, योद्धाओं की दौड़ की प्रतियाँ आंकी गई। परशुराम जो उनसे सम्बन्धित थे, जिन्होंने इक्कीस बार अधर्मी क्षत्रिय जाति को नष्ट करके ब्राह्मणों का साम्राज्य स्थापित कियाकिस प्रकार उन्होंने क्षत्रियों) को अपनी जान बचाने के लिए स्वयं को भाट ( चारण ) घोषित कर दिया और अन्य राजपूतों ने भी स्त्रियों का भेष बना लिया। इस प्रकार अन्य राजपूतों ने अपनी जाति तथा ।प्राणों को बचा लिया। जब ब्राह्मणों को राज्य सौंपा गया, उस समय नर्मदा नदी के किनारे बसे हुए महेश्वर नगर के "हैहय” वंशीय राजा के कोधी व लालची स्वभाव ने उसको (सहनाजु न) को अन्तिम युद्ध के लिए विवश किया । परशुराम के पिताको मार डाला गया, लेकिन ब्राह्म कोंका मुख्य हथियार तो श्राप अथवा आशीर्वाद देना है । उस समय भारी उथल पुथल, अशान्ति देश-भर में मचने लगी थी। एक शक्तिशाली शासक की आवश्यकता महसूस होने लगी। अज्ञानता, अधर्म और नास्तिकता पूरी पृथ्वी पर फैल गई । धार्मिक पुस्तकें पैरोंतले कुचली गईं और मनुष्य जाति का कोई आश्रयदाता नहीं बचा । इस आपात स्थिति में विश्वामित्र जो भगवान की भुजाओं के गुरु थे, उनका चिन्तित होना स्वाभाविक था। उन्होंने विचार करके क्षत्रियों को पुनः उत्पन्न करने का उपाय हाँढ़ निकाला । उन्होंने इस कार्य के लिए आबू पर्वत की चोटी को चुना, जहाँ एकाग्र होकर ऋपियों तथा मुनियों ने निश्चित भाव से समाधिस्थ होकर देखा कि संसार के रचयिता विष्णु भगवान क्षीर-सागर में शेषनाग की पौया पर शयन कर रहे हैं । समाधिस्थ मुनियों ने क्षत्रिय जाति को पुनर्जीवित करने की इच्छा प्रकट की । प्रार्थना करने पर उनको ऋषियों तथा मुनियों को) विष्णु भगवान का आदेश हुआ कि आप क्षत्रियों की पुनः रचना का कार्य करें । उनका ऐसा आदेश सुनकर रुद्र, , विष्णु व इन्द्र अपनेअपने वाहनों से लौट औये । वहाँ एक हवनकुण्ड बनाया गया, जिसको कि गंगा जी के अल से पवित्र किया गया। अतिथि सत्कार के द्वारा अपने हृदय को प्रायश्चित करके पवित्र किया। इसके बाद गुप्त सभा में एक प्रस्ताव पास हुआ कि पहले इन्द्र द्वारा उत्पत्ति कराने का कार्य प्रारंभ हो । इन्द्र द्वारा दूबघासकी पुतली बनाकर उसको शुद्ध जीवन रूपी जल से छिड़ककर आग के कुण्ड (हवन कुण्ड) में डाला गया । इस प्रकार संजीवनी मंत्र का उच्चारण किया, तब उस कुण्ड में से एक मानव आकृति धीरेधीरे प्रकट हुई, जिसके हाथ में गदा थी, वह चिल्ला रही थी। "मारु-मारु' " उस आकृति को परमार की संज्ञा दी गई । नामप्रकरण देने के बाद उसको आबू व धारदेश का राज्य दिया गया। तब फिर ब्रह्मा ने अपने अंश से एक पुतला बनाया और उसको अग्निकुण्ड में डाल दिया। उस अग्निकुण्ड से एक आकृति निकली, जो कि अपने एक हाथ में तलवार दूसरे हाथ में कैद तथा गलेमें माला पड़ी हुई थी। उस आकृति का नाम चालुक्य या सोलंकी रखा गया और अनहुलपुर पट्टन का राज्य दिया गया। इसके बाद रुद्र द्वारा तीसरी आकृति बनाई गईउस पर गंगाजी का पानी छिड़का गया और संजीवनी मन्त्र का उच्चारण किया गया। इसके बाद उस कुण्ड से एक काली ( बद सूरत ) शक्ल निकली, जो कि अपने हाथ में धनुष बाण लिए हुए थी, उसका पैर फिसल गया, उसको राक्षसों का
संहार करने के लिए भेजा गयावे परिहार कहलाये । उनको द्वारपाल की जगह रखा गया और उनको नोरगुल रेगिस्तान का इलाका दिया गया। उनको नौ रेगिस्तानी इलाकों पर नियुक्त किया गया। चौथी आकृति विष्णुजी द्वारा बनाई गई, जब एक आकृति उनकी ही तरह चारों भुजाओं में अलग-अलग हथियार लेकर अग्नि से प्रकट हुई, तब उसकों चतु'ज "चौहान" या चार भुजाओं वाला माना गया। देवताओं ने उसे फलापूला होने के लिए आशीर्वाद दि या और मकावती नगरी का राज्य दिया । ऐसा नदाम गुर डिला द्वापर में हुआ । था, राक्षस इन सब बातों को देख रहे थे । इन राक्षसों के दो नेता जो अनि-कुण्ड के नजदीक यह सब बैठे देख रहे थे, इस
प्रकार राजपूतों की पुनर्रचना का कार्य समाप्त हो गया । ये उत्पन्न हुए क्षत्रियों को इन राक्षसों से लड़ने के लिए भेजा गया। जब अन्तिम युद्ध हुआ, उसमें बड़ी तेजी से राक्षसों  का खून बहा, उस रक्त ( न ) से नयेनये राक्षस पैदा होने लगे। तब चारों देवों ( देवताओं ) ने एक नई शक्ति पैदा की, वह दौड़कर राक्षसों का खून पी गई। इस प्रकार बुराइयों के चक्र को बन्द कर दिया गया । इन शक्तियों के नाम इस प्रकार थे।

चौहानों को- आशापूर्ण माता
परिहारों की गन्जुन माता
सोलट्ठियों की योन्जु माता
परमारों की - संचिर माता

जब सत्र राक्षस मारे गये, तब खुशी की आवाज ने सारे आकाश को गुजायमान कर दिया। आकाश से अमृत की
वर्षा हुई । सब देव तागण अपनेअपने वाहनों पर चढ़कर अपने अपने स्यान को चले गये, इस प्रकार यह जीत हासिल की। राजपूत (क्षत्रियों) को ३६ (छत्तीस) कुल की सूची को अग्नि कुल की महत्ता प्रदान की गई, और सब क्षत्री स्त्रियों के गर्भ से उत्पन्न थे.
Muni rajput history


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